नई दिल्ली: चमोली के तपोवन में आई प्रलय ने एक बार फिर ऑपरेशन ब्लू माउंटेन की याद ताजा कर दी हैं। जिस नंदा देवी ग्लेशियर से ऋषिगंगा में तबाही बहकर आई, उसी ग्लेशियर में 56 साल पहले प्लूटोनियम खो गया था, जिसका पता आज तक नहीं चल पाया। ऐसे में वैज्ञानिकों के माथे पर चिता की लकीरें आ गई हैं कि कहीं ऋषिगंगा में प्लूटोनियम का कचरा तो बहकर नहीं आ गया। अगर ऐसा हुआ तो यकीन मानिए बड़ी तबाही इंतजार रही है। अगर प्लूटोनियम अभी भी नंदा देवी ग्लेशियर में ही है तो भी खतरा बहुत बड़ा है।
ऋषिगंगा से आई प्रलय की वजह से तपोवन में जबरदस्त तबाही हुई है। एनटीपीसी का प्लांट बर्बाद हो गया है और लापता लोगों की तलाश के लिए रेस्क्यू ऑपरेशन अब तक जारी है। साथ ही विनाशकारी बाढ़ के पीछे की वजह को तलाशा जा रहा है। नंदा देवी ग्लेशियर के टूटने का कारण ढूंढा जा रहा है। एक तरफ हादसे को डिकोड करने की कोशिश हो रही है तो दूसरी तरफ पर्यावरण से जुड़े लोगों के माथे पर चिंता की लकीरें उभर गई हैं। पर्यावरण विशेषज्ञों को चिंता है कि अगर चमोली में ग्लेशियर टूटने से प्लूटोनियम पैक को कोई नुकसान हुआ तो अंजाम विनाशकारी होगा।
कुछ महीनों पहले उत्तराखंड के पर्यावरण मंत्री सतपाल महाराज ने भी नंदा देवी में गुम हुए प्लूटोनियम पैक की वजह से चिंता जताई थी। सतमाल महाराज की चिंता की वजह आज से 56 साल पहले का बेहद सीक्रेट मिशन है, जब अमेरिका और भारत ने मिलकर चीन पर पैनी नजर रखने के लिए भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी पर मिशन ब्लू माउंटेन को अंजाम दिया था।
1964 में चीन ने जिनजियांग प्रान्त में पहला परमाणु परीक्षण कर दुनिया को हैरत में डाल दिया था। भारत और अमेरिका समेत तमाम देश चीन के परमाणु परीक्षण से सकते में आ गए थे और उन्हें चीन से खतरा महसूस होने लगा। ऐसे में भारत और अमेरिका ने नंदा देवी ग्लेशियर पर ऑपरेशन ब्लू माउंटेन चलाया, जो किसी वजह से सफल नहीं हो पाया। लेकिन उससे खतरे की आहट आज तक महसूस होती है।
चीन के परमाणु परीक्षण के एक साल बाद यानी 1965 में अमेरिका और भारत ने नंदी पर रिमोट सेंसिंग डिवाइस लगाने का फैसला लिया। नंदा देवी का चुनाव इसलिये किया गया था कि इसकी चोटी से चीन के जिनजियांग से आगे तक की गतिविधियों पर नजर रखी जा सकती थी। इस डिवाइस को लगाने के लिये भारी-भरकम उपकरणों को 7816 मीटर ऊंची नंदा देवी पर्वत श्रृंखला पर लगाया गया भारी-भरकम मशीनों में 56 किलोग्राम के एक उपकरण के अलावा 8 से 10 फीट ऊंचा एंटीना, दो ट्रांसीवर और न्यूक्लियर ऑक्जिलरी पॉवर जेनरेटर शामिल थे। इनके अलावा 7 कैप्सुल्स में 5 किलोग्राम प्लूटोनियम भरकर लाया गया। प्लूटोनियम पावर जेनरेटर के लिये बिजली मुहैया कराने का काम करता और प्रतिकूल मौसम में भी जेनरेटर चलता रहता, इसलिये प्लूटोनियम के इस्तेमाल का निर्णय लिया गया था।
मिशन को अंजाम देने के लिए 200 लोगों की टीम लगी थी, जिन्हें बेहद वजनी उपकरणों और प्लूटोनियम से भरे 7 कैप्सूल को नंदा देवी की चोटी पर पहुंचना था। भारी उपकरणों को पहुंचाने के लिए टीम में शामिल लोगों में स्थानीय पर्वतारोहियों, सीआईए और आईबी के माहिर अफसर और विशेषज्ञ शामिल थे। इन सभी लोगों को वो जैकेट मुहैया कराए गईं थीं, जिनका इस्तेमाल अन्तरिक्ष में जाते वक्त अंतरिक्ष यात्री करते हैं। टीम का नेतृत्व भारत के कैप्टन मनमोहन सिंह कोहली कर रहे थे।
18 अक्टूबर 1965 को जरूरी उपकरण लेकर टीम 7239 मीटर ऊपर कैम्प-4 तक पहुंच गई। वहां से नंदा देवी चोटी महज 577 मीटर दूर रह गई थी। टीम के सदस्य चोटी को देख पा रहे थे और मिशन को लगभग पूरा मान चुके थे, लेकिन ऐन वक्त पर बर्फीला तूफान आ गया। मौसम इतना खराब हो गया कि अगर टीम वहां थोड़ी देर और रुकती, तो सभी 200 सदस्य बर्फ में दफ्न हो जाते। नतीजा ये हुआ कि मिशन को स्थगित कर दिया गया और सारे उपकरण को वहीं छोड़कर टीम वापस लौट आई। करीब 6 महीने तक इन्तजार करने के बाद मई 1966 में अधूरा मिशन पूरा करने के लिये टीम के कुछ सदस्य और एक अमरिकी वैज्ञानिक ने दोबारा वहां गई, लेकिन तब वहां न तो एंटीना था, न जेनरेटर और न ही प्लूटोनियम से भरे 7 कैप्सूल। वहां सिर्फ- बर्फ ही बर्फ दिखाई दे रही थी।
हैरानी की बात ये थी कि जिस नंदा देवी पर्वत शृंखला में उस वक्त प्लूटोनियम से भरे 7 कैप्सूल गुम हुए थे, वो ऋषि गंगा का उद्गम स्थल है, जो आगे जाकर गंगा में मिल जाती हैऔर ग्लेशियर टूटने की वजह से ऋषिगंगा ही तबाही लेकर आई है। नंदा देवी में खोई प्लूटोनियम की डिवाइस की उम्र 100 साल बताई जा रही है यानी डिवाइस के अभी भी 34 साल बचे हैं, लेकिन अगर सच में प्लूटोनियम ऋषि गंगा में मिला तो पानी विनाशकारी हो सकता है और बहुत सारे लोग प्रभावित हो सकते हैं। हालांकि कहा तो ये भी जा रहा है कि वो डिवाइस काफी गर्म है और एक बार ग्लेशियर से टच हो गया तो वो तब तक नीचे बैठता जाएगा, जब तक बर्फ गलकर पत्थर न आ जाए।
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