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क्या RSS का दखल स्वीकार कर पाएगी मोदी-शाह की BJP? चुनाव परिणाम के बाद बदले संघ के तेवर

BJP RSS Crisis: इस बार हुए लोकसभा चुनाव के परिणामों ने एक तरह से भाजपा को अर्श से फर्श पर लाने का काम किया है। गठबंधन के लिए 400 और अपने लिए 370 सीटें जीतने का लक्ष्य तय करने वाला भगवा दल अपने दम पर बहुमत भी हासिल नहीं कर पाया। हालांकि, अपने सहयोगी दलों के साथ उसने सरकार जरूर बना ली है लेकिन उसके प्रदर्शन ने कई सवाल खड़े किए हैं। ये सवाल उठाने वालों में आरएसएस भी है।

BJP vs RSS : लोकसभा चुनाव के परिणाम सामने आने के बाद ही भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीच तनाव की चर्चाएं सामने आ रही हैं। हालांकि, भाजपा और आरएसएस दोनों ने ही ऐसी खबरों को अफवाह बताया है लेकिन समय के साथ ये अफवाहें और तेज होती जा रही हैं। दरअसल, इस बार के लोकसभा चुनाव के परिणामों से संघ खुश नहीं है। हालांकि, खुश तो भाजपा भी नहीं है लेकिन संघ की जैसी प्रतिक्रिया अब तक रही है उसे लेकर गुस्से में जरूर हो सकती है। संघ से जुड़े लोगों के अब तक जैसे रिएक्शन आए हैं वह बताते हैं कि उन सबका मानना है कि भाजपा नेतृत्व के अहंकार ने ही इस बार चुनाव में ऐसी स्थिति बनाई है। लेकिन, बड़ा सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की अगुवाई वाली भाजपा इस बात को स्वीकार करेगी? चुनाव रिजल्ट सामने आने के बाद सबसे पहले भाजपा को लेकर संघ की नाराजगी संघ से जुड़ी पत्रिका ऑर्गनाइजर में प्रकाशित हुए रतन शारदा के लेख में सामने आई। इसमें शारदा ने कहा कि भाजपा के नेता सोशल मीडिया पर पोस्ट्स शेयर करने में व्यस्त थे और वह जमीन पर नहीं उतरे। उन्होंने यह भी लिखा कि नेता अपने 'बुलबुले' में खुश थे और जमीन पर लोगों की आवाज नहीं सुन रहे थे। काफी लंबे समय से संघ के सदस्य रतन शारदा का यह लेख संघ को लेकर भाजपा के रुख पर नाराजगी जाहिर करता है। अपने लेख में शारदा ने यह भी लिखा कि आरएसएस भाजपा की कोई फील्ड फोर्स नहीं है। असल में तो भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है, उसके पास अपने खुद के कार्यकर्ता हैं। उल्लेखनीय है कि इसमें लोकसभा चुनाव के परिणामों की पूरी जिम्मेदारी भाजपा के कंधों पर डाली गई है।

आहत हैं लेकिन विरोध कैसे करें?

दरअसल, चुनाव के दौरान भाजपा के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने एक ऐसी टिप्पणी की थी जो निश्चित तौर पर संघ को चुभी होगी। नड्डा ने कथित तौर पर कहा था कि भाजपा अपने दम पर खड़ी है, हमें संघ की आवश्यकता नहीं है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि संघ भले ही भाजपा लीडरशिप के रुख से खुश नहीं है। लेकिन उसे यह भी अच्छे से मालूम है कि इसी लीडरशिप ने उसके लंबे समय से चले आ रहे अयोध्या में राम मंदिर के एजेंडे को पूरा किया है। उसे यह भी मालूम है कि अब कांग्रेस भी वैसी नहीं रही जैसी इंदिरा गांधी के समय में थी। इसलिए भाजपा को सबक सिखाने के लिए संघ कांग्रेस को लेकर कोई दांव भी नहीं खेल सकता है। दरअसल, संघ, इंदिरा को हिंदू नेता मानता था। इसी कारण से 1980 के चुनाव में संघ ने इंदिरा गांधी को जीत दिलाने में भी सहायता की थी।

कितनी गंभीर हो सकती है स्थिति?

अभी तक आई संघ के नेताओं की टिप्पणियों को देखें तो चाहे रतन शारदा का आर्टिकल हो, मोहन भागवत का बयान हो या राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के इंद्रेश कुमार की टिप्पणी हो सबमें एक बात कॉमन दिखाई देती है और वह भाजपा नेतृत्व में अहंकार को लेकर है। लेकिन, यहां यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा ने संघ के कई एजेंडों को साकार किया है। अयोध्या में राम मंदिर को लेकर विवाद हो या जम्मू-कश्मीर में आर्टिकल 370 को खत्म करना हो, यह मोदी और शाह की भाजपा ही थी जिसने संघ के इन बड़े उद्देश्यों को पूरा करने का काम किया। असल में आरएसएस की भाजपा से डिमांग यह है कि भाजपा संगठन को मोदी सरकार से अलग कर दिया जाए। वह चाहता है कि भाजपा संगठन अपने फैसले खुद करे, इसके लिए सरकार की अनुमति या दखल पर निर्भर न रहे।


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